जैसे सूरज की गम्री से जलते हुये तन को मिल जाये तरुवर की छाया
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला हैन मैं जब से शरन तेरी आया, मेरे राम
भटका हुआ मेरा मन था कोई, मिल ना रहा था सहारा
लहरों से लडती हुई नाव को जैसे मिल ना रहा हो किनारा
उस लडखडाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया
शीतल बने आग चन्दन के जैसी, राघव क्रिपा हो जो तेरी
उजियाली पूनम की हो जाये रातें, जो थी अमावस अंधेरी
युग युग से प्यासी मरुभूमी में जैसे सावन का सन्देस पाया
जिस राह की मन्जिल तेरा मिलन हो, उस पर कदम मैं बढाऊ
फ़ुलोन मेइं खारों मेइं, पतझड बहारों में, मै ना कभी डगमगाऊ
पानी के प्यासे को तकदीर ने जैसे जी भर के अमरित पिलाया
Wednesday, July 28, 2010
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