Monday, August 23, 2010

कहीं एक मासूम नाज़ुकसी लडकी

कहीं एक मासूम नाज़ुकसी लडकी बहुत खुबसूरत मगर सामने से बहुत खुबसूरत

मुझे अपने ख्वाबों की बाहों मे पाकर
कभी नींद मे मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद गर्म सांसे उठाकर
सरनेसे तकिये गिराती तो होगी कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लडकी

चलो खत लिखे जी में आता तो होगा
मगर उंगलियां कप कपाती तो होंगी
कलम हाथ से छुट जाता तो होगा
उमंगे कलम फिर उठाती तो होंगी

मेरा नाम अपनी कीताबों मे लिख कर
वोह
दातों में उन्गली दबाती तो होगी
कहीं एक मसूम नाज़ुक सी लडकी

ज़ुबां से कहीं उफ़्फ़ निकलती तो होगी
बदन धिरे धिरे सिमट ता तो होगा
कहिं पे पांओ पडते तो होंगे ज़मीं पर दुपट्टा सिसकता
तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होंगी कभी रात को दिन बताती तो होंगी कहीं एक मासूम
नाज़ुक सी लडकी बहुत खुबसूरत मगर सामने से बहुत खुबसूरत